Saturday, July 10, 2021

 दिनांक २९ अप्रेल २०२१ को डॉ. कुंवर बेचैन का निधन हो गयाl उनके निधन से हिंदी कविता और ग़ज़ल का मंच बहुत निर्धन हो गयाl उनकी प्रतिभा असीम थीl माँ सरस्वती की उनपर असीम कृपा थीl ७९ वर्ष की आयु में भी मंच पर उनका युवाओं जैसा उत्साह दिखता थाl वह मंच पर न केवल सुनाते थे बल्कि अन्य सभी ,युवा तथा वरिष्ठ कवियों और शायरों की रचनाएँ ध्यान से सुनते थे और नोट भी करते थेl उनका विचार भारत के काव्य मंच का इतिहास लिखने का थाl 
व्यक्तिगत रूप से वह आकर्षक व्यक्तित्व, बुलंद आवाज़ और मधुर गायन कला से संपन्न थेl अद्बभुत चित्रकार थे और बांसुरी बहुत सुन्दर बजा लेते थेl सौम्य, विनयशील, बहुत ही सज्जनl हम जब उनके घर उनके साथ भोजन करने बैठते थे तो सभी साथ खाने वालों को वह पहला कौर अपनी थाल से अपने हाथ से खिलाते थेl 

मंच पर जब कविता सुनाने खड़े होते तब न केवल सभी कवियों वरन् जान पहचान के श्रोताओं का भी अभिनन्दन करतेl 

उनकर गृह नगर गाज़ियाबाद में संकेत नाम की संस्था की स्थापना में अन्य बड़ी हस्तियों जैसे एम् एम् एच कोलेज के प्रिंसिपल डॉ. बी बी सिंह, मेरठ विश्वविद्यालय के भूतपूर्व वाइस चांसलर के बी एल गोस्वामी, प्रसिद्ध समाज सेविका श्रीमती मंजीत भाम्बरा आदि के साथ मैं भी सम्मिलित था तब डॉ. बेचैन के निकट आने का अवसर मुझे मिला थाl उनकी जीवन यात्रा अत्यन साधारण, सुविधाओं से वंचित बाल्यकाल से आरंभ होकर अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कवि तथा शायर के रूप में सिद्ध एवं प्रसिद्ध होने की एक अद्भुत व् रोचक कथा हैl  

डॉ. बेचैन ने लगभग सभी छंदों में गीत, लगभग सभी  बह्र में ग़ज़ल, नवगीत, कवितायेँ , हाइकू, दोहा संग्रह, "मरकत द्वीप की नीलमणि" नामक उपन्यास व् "पांचाली" नमक खंडकाव्य भी लिखे। 
'पिन बहुत सारे', 'भीतर साँकलः बाहर साँकल', 'उर्वशी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख', 'एक दीप चौमुखी, नदी पसीने की', 'दिन दिवंगत हुए', 'ग़ज़ल-संग्रह: शामियाने काँच के', 'महावर इंतज़ारों का', 'रस्सियाँ पानी की', 'पत्थर की बाँसुरी', 'दीवारों पर दस्तक ', 'नाव बनता हुआ काग़ज़', 'आग पर कंदील', जैसे उनके कई ग़ज़ल संग्रह हैं तथा 'नदी तुम रुक क्यों गई', 'शब्दः एक लालटेन' आदि कविता संग्रह हैं।
उनका एक शेर मेरे मन में सदैव गूंजता है:
सारी धरा भी साथ दे तो और बात हैl पर तू ज़रा भी साथ दे तो और बात हैll 
चलने को एक पाँव से भी चल रहे हैं लोगl पर दूसरा भी साथ दे तो और बात हैll 
आज उनकी एक कविता भी याद आ रही है जिसकी दो पंक्तियाँ हैं;
आती जाती सांस दो सहेलियां हैं,
एक जा के दूसरे को भेज जाती हैl 
और जिस गली में उनका आना जाना है,
फूस की वो झोपड़ी जीवन कहाती हैl 
उनको विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में उनके काव्य गुरु श्री कृष्ण बिहारी "नूर" लखनवी का एक शेर प्रस्तुत करता हूँ; 
अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा हैl 
"नूर" इस दुनियां से गया ही नहींll