डा. कुंवर बेचैन बताया कि ग़ज़ल अथवा कविता मनः स्थिति का प्रवाह होती है। भीतर यदि लय है तो प्रत्येक मनः स्थिति - सुख दुःख, टूटन व घुटन भी कविता हो सकती है। किन्तु यदि भीतर बिखराव या confusion है तो मन कविता नहीं दे सकता। ग़ज़ल के शेरों में तगज्जुल अथवा रवानी आवश्यक है। ग़ज़ल के प्राण हैं कि यदि काफिया छोड़ कर वही बात गद्य में कही जय तो भी कमोबेश उसी रूप में रहे अतः शेरों को बातचीत की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। जैसे: -
दिले नादां तुझे हुआ क्या है। आखिर इस दर्द की दवा क्या है।।
ग़ज़ल का हर शेर आजाद होना चाहिए, ग़ज़ल लिखने के बाद उसके अर्थ भाव व अंतर्संबंध "मोह" त्याग कर देखने चाहिएं मोहित होने पर आकलन असंभव हो जाता है। ग़ज़ल की मात्राएं सही करने को
तकतीअ करना कहते हैं।
अतः ग़ज़ल रचना का नियम यह हुआ:-
1. सबसे पहले गद्य के जितने निकट हो सके ऐसे पद्य की भाषा में लिखो,
2. मोह त्याग कर अर्थ भाव व अंतर्संबंध देखो,
3. काफिया ठीक करो,
4. रदीफ़ संभालो,
5. तकतीअ करो व मात्राएँ दुरुस्त करो,
6. बहर में करो, तगज्जुल या रवानी देखो
5. तकतीअ करो व मात्राएँ दुरुस्त करो,
6. बहर में करो, तगज्जुल या रवानी देखो
7. फिर ग़ज़ल कहो
ग़ज़ल कही जाती है, अर्ज़ की जाती है, सुने नहीं।
यह कैसे किया जाता है? यह फिर कभी।
अभी यह सात कदम!
1 comment:
बहुत ही सहज रूप में समझाया।धन्यवाद!
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